Friday, December 28, 2018

ढलती हुई सकारात्मक सोच

ढलती हुई सकारात्मक सोच
*****

भले ही पंख नहीं हैं उसके
कम से कम कोशिश तो करता है उड़ने की

भले ही चल नहीं सकता है वो
कम से कम बैठा तो नहीं रहता है एक जगह पर

भले ही ग़रीबी में गुजर बसर है उसकी
कम से कम चोरिया तो नहीं करता मोहल्ले में
*
भले ही नटखट है वो
कम से कम उपद्रवी तो नहीं

भले ही मुँहफट है वो
कम से कम गाली तो नहीं देता

भले ही अनपढ़ है वो
कम से कम नालायक तो नहीं
*
भले ही वह खाता है ऊपर की कमाई
कम से कम दान तो करता है मंदिर में

भले ही वो धूर्त है अव्वल दर्जे का
कम से कम साथ लेकर तो चलता है सबको

भले ही उसके हाथ रंगे है खून से
कम से कम वो हाथ धोकर तो खाना खाता है

No comments:

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा में...

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने व्यक्तित्व, अपने चरित्र, अपनी समझ या अपने मद में। हम रह सकते हैं अपने रंग में भी पर कलम से...