Tuesday, May 28, 2024

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा में...

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने व्यक्तित्व, अपने चरित्र, अपनी समझ या अपने मद में। हम रह सकते हैं अपने रंग में भी पर कलम से कली, कली से फ़ूल, फ़ूल से पंखुड़ी और पंखुड़ी के सूख कर पिस जाने तक का धैर्य भरा रंग और ख़ुशबू भरी चेतना होने से पहले हम मान लेते है उस रंग को अपना रंग जो अपना हो ही नहीं सकता। सूर्य मेरी बालकनी से उगता है ये मेरी मान्यता है मेरा रंग नहीं, मेरा सत्य नहीं।

(कन्नड़ा में कृष्ण और सत्यभामा की कथा का अलौकिक मंचन उडुपी के लोक कलाकारों द्वारा)


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