Tuesday, May 28, 2024

वर्ल्ड बुक रीडिंग डे

 वर्ल्ड बुक रीडिंग डे

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एक आग्रह मैंने अपने हर ओर पाया कि खूब किताबे पढ़ो और इस आग्रह में कुछ गलत भी नहीं है पर कई मौको पर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि यह आग्रह सभ्यता, संस्कृति या किसी वाद विशेष का PR ज़्यादा है और ईमानदार आग्रह कम. इस भाव ने ही मुझे मजबूर किया यह पता लगाने कि पढ़ना वाकई में क्या है? इस सवाल को जब भी मैंने किसी पब्लिक फोरम या आपसी बातचीत में पूछा, कुछ जवाब इस तरह के मिले
"जिन्हे नहीं पढ़ना है वो इस तरह के सवाल पूछते हैं"
"पढ़ना ज़रूरी है बस, जो नहीं पढ़ते वो आलसी हैं"
पर कुछ फोरम और आपसी बातचीत में इस विषय पर गंभीर विचार विमर्श भी हुए. मुझे चार वर्ग स्पष्ट रूप से दिखे:
१. जो बहुत पढ़ रहे हैं पर उनके आचरण में उनके पठन पाठन की झलक नहीं दिखती।
२. जो बहुत पढ़ रहे हैं और उनके आचरण में भी उनके पठन पाठन की झलक दिख रही है.
३. जो पढ़ रहे हैं या नहीं पढ़ रहे हैं पता नहीं पर उनके आचरण में एक परिपक़्वता है ठहराव है.
एक चौथा वर्ग भी है जो ना तो पढ़ रहा है और ना ही उनके आचरण में कोई ठहराव है, और इस वर्ग की चर्चा यहाँ पर करना फिलहाल व्यर्थ है.
मुझे तीसरे वर्ग ने बहुत प्रभावित किया। एक से एक उदहारण मिले - हलधर नाग, तीसरी पास स्कूल ड्रॉपआउट जो आज पद्मश्री सम्मानित लोक कवि हैं, धीरू भाई अम्बानी, अमेरिका के कई जाने माने स्कूल और कॉलेज ड्रॉपआउट और अपने आसपास असंख्य ऐसे लोग जिन्हें देखकर लगता है कि ये लोग कम पढ़ते हैं पर उनके आचरण, उनकी परिपक़्वता ना सिर्फ प्रभावित करती है पर बहुत कुछ सिखाती भी है.
अब यहाँ दो सवाल पूछे जा सकते हैं, क्या ये लोग अगर किताबे पढ़ते तो वैसे बन पाते जैसे वो अभी हैं? और पढ़ना असल में होता क्या है?
दूसरे सवाल में ही शायद पहले सवाल का जवाब छुपा हुआ है. चलिए मिलकर गौर करते हैं दूसरे सवाल पर. पढ़ना क्या है? इससे पहले यह जानने की कोशिश करते हैं कि क्या पढ़ना नैसर्गिक है? जवाब हाँ भी है और ना भी. हम देख सकते है अपनी खुली और बंद आँखों से, ये एकदम नैसर्गिक गुण है. हम हर चीज़ को चित्र की तरह देखते हैं. तो असल में जब हम पढ़ते हैं हम देख रहे होते हैं हर अक्षर को एक चित्र की तरह और हमारा दिमाग उस चित्र को अक्षर में, अक्षरों को शब्दों में और शब्दों को अर्थो में प्रोसेस कर हमें बताता है कि हमने क्या पढ़ा. तो एक बात तो तय है कि जो भी सतर्क होकर देख रहा है वो असल में पढ़ ही रहा है. और ज़रूरी नहीं की पढ़ने का अर्थ सिर्फ किताब पढ़ना हो, हमारे आसपास जो भी हो रहा है उसे देखना या देख पाने की कोशिश करना भी पढ़ना ही है. सिर्फ देखना ही क्यों? सुनना भी पढ़ना ही है. हो सकता है किसी कि सुनने वाली इन्द्रियां, देखने वाली इन्द्रियों से ज़्यादा सक्षम हो और आपने देखा होगा कि आजकल तो ऑडियो बुक्स भी आ गयी हैं.
मुझे लगता है कि तीसरा वर्ग ज़्यादा पढ़ रहा है (बाकी दो वर्गों की तुलना में), जो दिख रहा है वो भी और दिखने के बाद और जानकारी/ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो पढ़ना है वो भी.
पढ़ने के असल मायने क्या हैं और क्यों पढ़े? ये दो सवाल अपने आप बता देंगे कि क्या पढ़ा जाए और इन दो सवालों के जवाब दृष्टि से मिलेंगे, द्रष्टा से नहीं।
गौरव भूषण गोठी
२५ अप्रैल २०२४

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