Friday, December 18, 2020

तथाकथित आत्मकथा

 उस बतख को देखो

वह शांत है बाहर से

पर बेचैन है भीतर ही भीतर

फड़फड़ा रही है उड़ने को 

पर उड़ना नहीं जानती

जब उड़ेगी तो कोई

लिखेगा उसकी आत्मकथा

पर नहीं लिखेगा बेचैनी

बेचैनी लिखो

तो आग लग जाती है कागज़ में

पिघल जाती है कलम

बेचैनी की किताब के अक्षर

बेचैन हुए बिना

भला कैसे पढ़ सकता है कोई?

मैं तैयार हूँ

 चेहरे से ज्यादा धूल

बैठती है मुखौटों पर

अक्सर छिड़कना पड़ता है पानी


विनम्र तौलियों को

भावनाओं में फिसलते देखना

लगने लगता है मार्मिक

जब उठा लेते है वो

मुखौटों के इल्ज़ाम

सर आँखों पर

तौलियों की दास्तान पर

एक कविता फिर कभी


कंघियाँ 

संवारती है सोच

सभ्यता के साथ

करती है स्थापित

वरना

पैदायशी तो सभी है

विस्थापित या निर्वासित


खुशबू भी

ज़रूरी है

बदबू छिपाने के लिए

सभी है निरपेक्षता के पक्षधर 

पर कोई नहीं मानता

बदबू भी तो  आखिर है एक खुशबू


मैं कैसा दिखता हूँ?

ये जान लेना भी आवश्यक है

मैं कैसा हूँ?

इस सवाल का जवाब

मायने नहीं रखता

अगले जनम तक


कपड़े पहनना 

तब तक है औपचारिकता

जब तक हमाम में हैं सब नंगे


भीड़ से जुदा होने के

मुगालते पालकर

इंसान होते हुए भी

एक अलग इंसान होने की

परिभाषा गढ़कर

नई भीड़ बनाने के वास्ते

मैं तैयार हूँ।


Random thoughts

मैंने भीतर के आँसुओं को बचाए रखा

मैंने भीतर के समंदर को  बचाए रखा


मेरे जज़्बात मछलियां हुए शैवाल हुए

अपने अश्कों का नमक मैंने बचाए रखा


समय की रेत घड़ी तोड़ दी अपने भीतर

समय की रेत का साहिल भी बचाए रखा


हवाएँ गीली है और ज़ख्म भी गीले हैं मेरे

जला के हौसलें मरहम को बचाए रखा


मरा नहीं हूँ मैं फिर भी परखता हूँ भूषण

खुद ही की लाश के टुकड़े को बचाए रखा

पहली बार की तरह

मैं नहीं पढ़ना चाहता तुमको

तुम ग़र आ गयी मेरी समझ में

शायद मैं छोड़ दूँगा ढूँढ़ना

तुमको और खुद को भी


मैं बस देखना चाहता हूँ तुम्हें

हर बार पहली बार की तरह

विचारों के व्यभिचारी

विचारों के व्यभिचारी 

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डिनर टेबल पर

मक्खन लगाकर

परोसी गयी

गाँधी के 

अहिंसा के सिद्धान्तों पर चर्चा

चिकन

और मय


डिनर के बाद

सबने ली एक डकार

और सब कुछ हो गया

गाँधी - मय 

Thursday, December 17, 2020

ट्रांक्विलिटी (tranquility)

ट्रांक्विलिटी (tranquility)

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कितना सटीक है

तुम्हारे स्वर कंकरों का निशाना

मटका टूटता नहीं है पर

बराबर फूटता है वहीं पर

जहाँ गाढ़े गमों ने

बाँध रखा था

जीवन का शीतल रस

मंत्र मुग्ध हूँ मैं

बहुत अच्छा रियाज़ है तुम्हारा

तुम्हारी गुलेल पर

मेरा रियाज़ तो बस

बनाता है खुद के भीतर

दो हथेलियों का चुल्लू

और करता है उस पल का इंतज़ार

कि कब तुम फोड़ो मटका

और कब मैं करूँ 

जीवन की शीतलता का

रसास्वादन  



Wednesday, December 16, 2020

पता नहीं, शायद