Sunday, January 31, 2021

परिवर्तन की लहर

परिवर्तन की लहर
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रखा जाता है
मजदूर को मजदूर
और किसान को किसान
गरीब मर जाता है 
पर गरीबी की समस्या नहीं
जो खुद हिस्सा है समस्या का
वो ही देते रहते है 
समस्या के समाधान पर व्याख्यान
और मैं सोचता रहता हूं 
कि कौन है ये लोग?
जिन्हे प्राप्त है दिव्य ज्ञान
जबकि मैं तो अब तक 
ठीक ठीक यह भी पता नहीं लगा पाया
कि मेरी अगली लघु शंका का
क्या है निर्धारित समय?
फिर भी चलती जाती है कलम
बढ़ती जाती है पोथियां
वो कहते रहते है कि हमें पढ़ो
भला होगा तुम्हारा 
बीत गए 5000 वर्ष
पर अब भी पैदा होते रहते है
राष्ट्रवादी, समाजवादी वगरैह
इसका एक अर्थ 
यह भी हो सकता है
कि समस्या कोई वरदान हो
वाद के अमरत्व का
जो सतत है प्रयासरत
कहता रहता है बेझिझक
ढूंढो नए शब्द, नई भाषा
और मारक बनाओ विचारों को
इतना मारक कि
करुणा से भरी संवेदना भी
क्रांति पर उतारू हो जाए
भक्ति से भरी भावनाएं भी
मारकाट पर उतर आए
बस मुद्दे से भरी कोई बात हो
तो वो कहीं दब कर रह जाए
वरना लिखने के लिए 
कहां से पैदा होगा 
कोई जिंदा विचार?
नए विचार की बोतल में 
परोसते रहो
पुराने वाद का नशा
लगेगा चल पड़ी है कोई लहर
बदल रहा है बहुत कुछ
पर बदलेगा वह नहीं
जिसका आवश्यक है बदलना
परिवर्तन संसार का नियम है
सत्ता, राजनीति, वाद  
और समस्याओं का नहीं

Sunday, January 24, 2021

कहावतों का आरक्षण

कहावतों का आरक्षण
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कहावतों का
नहीं होता कोई
कोटा सिस्टम
एक मछली 
जो पानी को गंदा करती है
वो राजा भी हो सकती है
और रंक भी

वन बाय टू मंचाओ सूप

वन बाय टू मंचाओ सूप
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पता नहीं कैसे
वो बात 
वन बाय टू मंचाओ सूप से होकर
हिंदू मुस्लिम, 
लेफ्ट और राइट, 
ब्लैक और व्हाइट तक पहुंच गई

जिसने प्लेस किया था ऑर्डर
वो कह रहा था
चीज़ें बांटकर खाओ
तो बढ़ता है प्यार
और पैसे जो बचते है वो अलग
हमने ये नहीं पूछा
किसके बीच 
किसके पैसे
बस मान कर 
पीने लगे सूप
कोई भी बात में
प्रेम और किफायत को जोड़ दो
तो दिल में बसी भावनाएं
तर्क को खा जाती है
प्रेम शब्द ही बड़ा अनोखा है
होता कम है
शोशा ज़्यादा है
और किफायत भी
किसी नशे से कम नहीं
चंद टुकड़ों की मोहलत पर
ना बिकने के मुगालते में
हम खरीद लिए जाते है
हैंगोवर तक पता नहीं होता
शर्तें लागू है

कोई आश्चर्य नहीं 
कि इंसानियत के मेनू पर
इंसानियत के ठेकेदारों ने
लगा रखी हो
प्रेम की बेतहाशा कीमत

वन बाय टू से
ना ही बढ़ता है प्रेम
और ना ही बचते है पैसे
बस बट जाते है हम
अनजाने में
चलाने
कुछ सियासतदानों की
दुकान

कभी साथ बैठ कर
ठहाके लगाते हुए
एक एक कप चाय ही पी लो
तो मालूम हो
कि प्रेम उस अदरक में था
जो कटी नहीं बटी नहीं
बस कीस कर 
अपनी महक के साथ
घुलती चली गई 
स्नेह से भरी 
एक प्याली चाय में


पता नहीं, शायद