Friday, December 18, 2020

मैं तैयार हूँ

 चेहरे से ज्यादा धूल

बैठती है मुखौटों पर

अक्सर छिड़कना पड़ता है पानी


विनम्र तौलियों को

भावनाओं में फिसलते देखना

लगने लगता है मार्मिक

जब उठा लेते है वो

मुखौटों के इल्ज़ाम

सर आँखों पर

तौलियों की दास्तान पर

एक कविता फिर कभी


कंघियाँ 

संवारती है सोच

सभ्यता के साथ

करती है स्थापित

वरना

पैदायशी तो सभी है

विस्थापित या निर्वासित


खुशबू भी

ज़रूरी है

बदबू छिपाने के लिए

सभी है निरपेक्षता के पक्षधर 

पर कोई नहीं मानता

बदबू भी तो  आखिर है एक खुशबू


मैं कैसा दिखता हूँ?

ये जान लेना भी आवश्यक है

मैं कैसा हूँ?

इस सवाल का जवाब

मायने नहीं रखता

अगले जनम तक


कपड़े पहनना 

तब तक है औपचारिकता

जब तक हमाम में हैं सब नंगे


भीड़ से जुदा होने के

मुगालते पालकर

इंसान होते हुए भी

एक अलग इंसान होने की

परिभाषा गढ़कर

नई भीड़ बनाने के वास्ते

मैं तैयार हूँ।


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