चेहरे से ज्यादा धूल
बैठती है मुखौटों पर
अक्सर छिड़कना पड़ता है पानी
विनम्र तौलियों को
भावनाओं में फिसलते देखना
लगने लगता है मार्मिक
जब उठा लेते है वो
मुखौटों के इल्ज़ाम
सर आँखों पर
तौलियों की दास्तान पर
एक कविता फिर कभी
कंघियाँ
संवारती है सोच
सभ्यता के साथ
करती है स्थापित
वरना
पैदायशी तो सभी है
विस्थापित या निर्वासित
खुशबू भी
ज़रूरी है
बदबू छिपाने के लिए
सभी है निरपेक्षता के पक्षधर
पर कोई नहीं मानता
बदबू भी तो आखिर है एक खुशबू
मैं कैसा दिखता हूँ?
ये जान लेना भी आवश्यक है
मैं कैसा हूँ?
इस सवाल का जवाब
मायने नहीं रखता
अगले जनम तक
कपड़े पहनना
तब तक है औपचारिकता
जब तक हमाम में हैं सब नंगे
भीड़ से जुदा होने के
मुगालते पालकर
इंसान होते हुए भी
एक अलग इंसान होने की
परिभाषा गढ़कर
नई भीड़ बनाने के वास्ते
मैं तैयार हूँ।
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