रूठना
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मधु-मख्कियाँ रूठती भी है क्या कभी? कैसे रूठती होंगी आखिर? चलो की आज हड़ताल पे चले जाते है, नहीं बनाते शहद। रूठना क्या होता है इस ब्रह्माण्ड के सन्दर्भ में? पृथ्वी रूठ कर रुक जाए किसी दिन तो दिन शाम ना हो पाए और शाम रात ना हो पाए। रूठना कोई विकल्प है भी क्या ब्रह्माण्ड में? क्या रूठना एक प्रिविलेज हैं? हमारा रूठना कैसा लगता होगा पूरे ब्रह्माण्ड को? क्या मधुमखियों के पास वक़्त है इतना की वो भी देख सके की देखों हमारे आसपास का दो पैर का एक जानवर रूठ गया है? मधुमखियों को मालूम भी है कि क्या होता है रूठना? हो सकता है हमारा रूठना प्रकृति के लिए कोई स्टैंडप कॉमेडी जैसा अनुभव हो. सब कुछ तो है स्टैंडप कॉमेडी जैसा हमारे रूठने में, नाटकीयता, शिकायत, बचपना, डायलॉग बाजी (जो व्यंग सी प्रतीत होती है) और गुस्सा उसके प्रति जिससे हम रूठे है. क्या है रूठना? महज़ शिकायत किसी और के प्रति, क्योंकि उसने वो नहीं किया जो हम चाहते है? अरे ये तो कठिन जवाब हो गया. जवाब जो ना समझ आये. वैसे जो जवाब अच्छा नहीं लगता हमें, वो भी इसी कैटेगरी में आ जाता है. किसी बड़े साहित्यकार ने कह दिया कहीं, रूठना तो प्यार के इज़हार जैसा है. और बस तब से रूठना हो गया प्यार के कुछ जायज़ पैमानों में से एक. साहित्यकार से किसी ने ये नहीं पूछा कि आखिर क्यों आपको रूठना प्यार जैसा लगता है? किसी ने उनसे इस बात के आंकड़े भी नहीं मांगे, इस पर कोई सांख्यिकी अनुसन्धान भी नहीं हुआ. सबको डर था कि साहित्यकार जी अगर रूठ गए तो शामत आ जाएगी. रूठने की क्रिया को प्यार से जोड़कर उसे जायज़ बना दिया गया जबकि मज़ेदार बात ये है कि प्रकृति ने अपने जंगलों में शिकायत पेटी भी नहीं लगवाई आज तक. कितनी निष्ठुर है ना हमारी प्रकृति, वो हमारी और हमारे साहित्यकारों की बात बिलकुल भी नहीं सुनती. और कितने निष्ठुर हैं ना हम कि किसी भी चीज़ को जायज़ बनाने के लिए हम उस पर लगा देते है प्रेम का ठप्पा. पेड़ सूखने तक ना तो रूठता है ना ही शिकायत करता है क्योंकि अपनी जड़ों से जुड़े रहकर प्रकृति को हरा रखना उसकी प्रकृति है. ब्रह्माण्ड में सब जानते है कि जिस क्षण वो रूठ गए वो भूल जाएंगे अपनी प्रकृति, सिर्फ इंसान को छोड़कर. रूठना हमारी प्रकृति कभी नहीं हो सकती, रूठना उस प्रकृति की प्रकृति है जो इंसानो की बनायीं हुई है. जब आग लगती है तब हम रूठते नहीं, बस ढूंढने लगते है एक बाल्टी पानी आग में डालने के लिए. आग हर जगह लगी हुई है, पर हम जानकर भी देखना नहीं चाहते है. हम चाहते है कि पहले धोड़ा रूठ ले, प्रेम के नाम पर फिर ढूंढेंगे एक बाल्टी पानी.
गौरव भूषण गोठी
२९ नवम्बर २०२०
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