Sunday, October 06, 2019

आन्दोलन क्यों होते है?


आन्दोलन क्यों होते है? कौन करता है आन्दोलन? आन्दोलन सामूहिक ही क्यों होते है? क्या हर आन्दोलन जनहितकारी ही होते हैं? ऐसे कई सवाल है जो मेरे मन को आंदोलित करते है.

१.      अपने आसपास, बचपन से लेकर आज तक देख रहा हूँ, कई तरह के आन्दोलन चल रहे थे और अब भी चल रहे है. शुरुआत सबसे निचले स्तर से करता हूँ, क्या तुमने “गेम्स ऑफ़ थ्रोन” देखा? क्या तुमने वो हिट पिक्चर देखी? क्या तुमने वो शराब पी या तुम उस पब में गए? ये है ट्रेंड, वर्ड ऑफ़ माउथ और एक विशेष प्रकार के आकर्षण से ग्रसित किक, जो आपको मुहैया कराता है, घर और ऑफिस में बातचीत के लिए मसाला. एक दबाव बनाते है इस तरह के आन्दोलन. इतना दबाव की आप अगर किसी ट्रेंड से नहीं जुड़े हो तो तय है आपका अकेले हो जाना. आप बोरिंग किस्म के लोगों में आ जाते है.

२.     इससे ऊपर उठे तो हम आते है लाइफ स्टाइल से जुड़े ट्रेंड पर. ये सबसे खतरनाक आन्दोलन है. यहाँ होता है अपनी दौलत का भौंडा प्रदर्शन. अपने आप को अलग दिखाने की कोशिश. नया मोबाइल, नयी  कार, नया घर, सब कुछ इतना नया, मानो सिर्फ मेरे लिए बनाया गया हो. iPhone किसी आन्दोलन से कम नहीं. इसे चाहो या ना चाहो, दोनों ही परिस्तिथ्यों में ये आन्दोलन खूब बढता है. ब्रम्हांड का अंत हो सकता है पर इस तरह के आंदोलनों का कोई अंत नहीं.  और जब इस आन्दोलन में आध्यात्म भी जुड़ जाता है तो कोई पीछे मुड़कर नहीं देखता. आन्दोलनकारी नैतिकता के ठप्पे के साथ पूरे हक से आपको अपना भौंडापन दिखाने के लिए प्रेरित करते है.

३.     इससे और ऊपर उठे तो हम बात करते है बुद्धिजीवी किस्म के आन्दोलनों की, जिसमें ऐसा दिखाया जाता है (होता है या नहीं पता नहीं) कि हम अगर किसी कॉज़ से अपने आप को जोड़े तो इससे समाज का भला होगा और एक नए समाज का निर्माण होगा. पिछले ५००० सालों से इस तरह के आन्दोलन हो रहे हैं, इसमें अचानक किसी को पता चल जाता है कि मलेरिया मच्छरों से हो रहा है, अगर मच्छरों को मारने के लिए दवा का छिडकाव कर दो तो समस्या समाप्त हो जाएगी, फिर वह दवा मच्छरों के साथ साथ बिल्लियों को भी मार देती है और फिर चूहे बढ़ जाते है और हैजा फ़ैल जाता है और इस तरह कॉज़ पे कॉज़, आन्दोलन पे आन्दोलन होते रहते हैं. कभी कोई समस्या सुलझ जाती है और कभी और बढ़ जाती है.

४.     और सबसे ऊपर आता है मेरे भीतर का आन्दोलन. खुद से खुद का संघर्ष. मज़ेदार बात यह है कि सारी शिक्षा और व्यवस्था ऊपर दिए हुए ३ आंदोलनों के हिसाब से है मगर इस आन्दोलन के लिए कोई भी व्यवस्था साथ नहीं देती, ५००० हज़ार साल में ५००० युद्धों के बावजूद. एक और मज़ेदार बात यह है कि सामूहिक रूप से किसी को भी निर्वाण नहीं मिला. कोई भी आज तक किसी और का खाया हुआ खाना पचा नहीं पाया. मनुष्य सामाजिक प्राणी हो सकता है मगर अपना निर्वाण उसे खुद प्राप्त करना है. कम से कम महावीर और बुद्ध की तो किसी ने कोई मदद नहीं की. अगर ट्रेंड के हिसाब से निर्वाण पाना आउट ऑफ़ फैशन है तब भी, आसान शब्दों में, बिजली का बिल और मौत तो अकेले ही झेलना है सबको, वहाँ कोई महावीर, बुद्ध और मार्क्स नहीं आने वाले तुम्हारे लिए कोई आन्दोलन करने.   

क्या ज़रूरी है इतना मौत के बारे में सोचना? इसमें क्या बुरी बात है कि मायकल जैक्सन के फैन के तौर पर मरूं? क्या ज़रूरी है अपनी खोज? मौज और मस्ती में मर जाने में क्या बुराई है? क्या बुराई है कुत्ते की मौत मरने में, कुत्ते क्या जानवर नहीं होते इन्सान की तरह?
शुरुआत सवालों से की थी, समाप्त भी सवालों से कर रहा हूँ, मेरे ख्याल में ५००० सालों में हमें इतनी आज़ादी तो मिल ही गयी है कि हम गूगल पर कुछ भी ढूँढ सकते है. अगर राजनीती और धर्म शब्द से ढूँढोगे तो मेरा लिखा नहीं मिलेगा. मैंने उन शब्दों का इस्तेमाल करना छोड़ दिया है जो अपना वास्तविक अर्थ खो चुके है.



आन्दोलन
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भोजन की तलाश छोड़कर
पहली बार
जब बनाया गया था भोजन
पहली बार
हमारी भूख को मिला था दिमाग
भोजन बनाने की विधाओं का
संग्रह करते करते
हमारी खोजी प्रवत्तियों ने  
छोड़ दिया था हमारा दिमाग
आखरी भोजन से पहले
हमें भूलना होगा
भोजन बनाने के तरीके
और खोजना होगा
कि हम क्या कर रहे थे
पहले भोजन से भी पहले?



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