Wednesday, December 20, 2017

यात्रा

साँसे चमक रही है
पानी की बूँद बनकर
मेरे माथे पर,
आँखें दौड़ रही है समतल
पूरी सृष्टि को समेटते हुए,
गर्दन ना सीधी है अकड़ में
और ना ही झुकी हुई है
दुनियादारी के बोझ तले,
दिल इश्क़ की समाधि में लीन
धड़क रहा है बेधड़क,
कमर गतिशील रूप से
स्थिर है ध्यान मुद्रा में,
पैरों को लग सकते है पंख
किसी भी क्षण,
रक्त उबल रहा है
धमनियों की कड़ाही में,
मैं हर गुज़रता लम्हा तलते जा रहा हूँ
आनंद के पकौड़े खा रहा हूँ
सायकल पर सवार हूँ
मंज़िल को भले ही होगी मेरी फिक्र
मैं हूँ कि बेफिक्र चलता जा रहा हूँ।

© 2017 गौरव भूषण गोठी

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