Sunday, December 17, 2017

खानाबदोश कश्ती के मुसाफिर

खानाबदोश कश्ती के
प्यासे मुसाफिर
पानी में रहकर भी
पानी के प्यासे
जीते है किश्तों में
मर मर के हम सब
लड़ते नहीं है
बस घुटते है मन में
सहते है सब कुछ
और लेते ज़हर की
हैं साँसे दिलों में
और प्यासे जहर के सब
ऐसे हुए है कि
चलता यहाँ पर सब
चलता नहीं है
बस खुद पे ही अपना बस
मरना भी चाहें तो
चैन से मरने का
कोई तो हो सबब
कोई तो हो सबब।

© 2017 गौरव भूषण गोठी

No comments:

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा में...

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने व्यक्तित्व, अपने चरित्र, अपनी समझ या अपने मद में। हम रह सकते हैं अपने रंग में भी पर कलम से...