खानाबदोश कश्ती के
प्यासे मुसाफिर
पानी में रहकर भी
पानी के प्यासे
जीते है किश्तों में
मर मर के हम सब
लड़ते नहीं है
बस घुटते है मन में
सहते है सब कुछ
और लेते ज़हर की
हैं साँसे दिलों में
और प्यासे जहर के सब
ऐसे हुए है कि
चलता यहाँ पर सब
चलता नहीं है
बस खुद पे ही अपना बस
मरना भी चाहें तो
चैन से मरने का
कोई तो हो सबब
कोई तो हो सबब।
© 2017 गौरव भूषण गोठी
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