Wednesday, December 20, 2017

यात्रा

साँसे चमक रही है
पानी की बूँद बनकर
मेरे माथे पर,
आँखें दौड़ रही है समतल
पूरी सृष्टि को समेटते हुए,
गर्दन ना सीधी है अकड़ में
और ना ही झुकी हुई है
दुनियादारी के बोझ तले,
दिल इश्क़ की समाधि में लीन
धड़क रहा है बेधड़क,
कमर गतिशील रूप से
स्थिर है ध्यान मुद्रा में,
पैरों को लग सकते है पंख
किसी भी क्षण,
रक्त उबल रहा है
धमनियों की कड़ाही में,
मैं हर गुज़रता लम्हा तलते जा रहा हूँ
आनंद के पकौड़े खा रहा हूँ
सायकल पर सवार हूँ
मंज़िल को भले ही होगी मेरी फिक्र
मैं हूँ कि बेफिक्र चलता जा रहा हूँ।

© 2017 गौरव भूषण गोठी

Sunday, December 17, 2017

खानाबदोश कश्ती के मुसाफिर

खानाबदोश कश्ती के
प्यासे मुसाफिर
पानी में रहकर भी
पानी के प्यासे
जीते है किश्तों में
मर मर के हम सब
लड़ते नहीं है
बस घुटते है मन में
सहते है सब कुछ
और लेते ज़हर की
हैं साँसे दिलों में
और प्यासे जहर के सब
ऐसे हुए है कि
चलता यहाँ पर सब
चलता नहीं है
बस खुद पे ही अपना बस
मरना भी चाहें तो
चैन से मरने का
कोई तो हो सबब
कोई तो हो सबब।

© 2017 गौरव भूषण गोठी

Tuesday, December 05, 2017

रावण प्रबंधन

मुखौटों से मरासिम है निराला रोज़ का अपना,
मैं रावण मैनेज करता हूँ अमन और चैन की खातिर।

© 2017 गौरव भूषण गोठी

कुरेदते रहो ख़ुद को

कुरेदते रहो ख़ुद को, खुदाई मत करो खुद की,
धरे रह जाएंगे मिट्टी के टीले, रूह के गड्ढे।

© २०१७ गौरव भूषण गोठी



अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा में...

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने व्यक्तित्व, अपने चरित्र, अपनी समझ या अपने मद में। हम रह सकते हैं अपने रंग में भी पर कलम से...