Thursday, May 03, 2018

सु डो कू

सजी हुई चार दिवारी के चौकोन कमरे
देते है स्वतंत्र होने का अहसास
एक अजीब सा नशा है
1 से 9 के बीच कुछ कहलाने में

अंकों को पता नहीं होता संख्या का गणित
संख्या कहलाने के सपनो का दम्भ होता है बस
उस बैलगाडी के नीचे चल रहे कुत्ते की तरह
जिसे लगता है, बस वो ही चला रहा है बैलगाड़ी

अंकों में लगी है संख्या बनने की होड़
पीछे जितने ज्यादा आध्यात्मिक शून्य
आगे उतनी ज्यादा संभावनाएं
निर्वाण प्राप्त करने की

अंको को पता नहीं होता
कौन खेल रहा है सु डो कू
अंको को नहीं बताई जाती
अपना सु डो कू बनाने की संभावनाएं।

© 2018 गौरव भूषण गोठी

कहने को कुछ भी ना रक्खा

कहने को कुछ भी ना रक्खा,
समेटकर सब दिल में रक्खा।

कब टूटे कब जुड़े क्या खबर,
घर में कोई आईना नहीं रक्खा।

गलतियाँ कमाई माफ़ी बाँटकर,
हर बात का हिसाब नहीं रक्खा।

ख़ुदा ने भेजा है अकेला मुझे,
अकेलेपन को सलामत रक्खा।

बड़े से गमले में जंगल बो कर,
बकरी को घर में पाले रक्खा।

किनारे दरिया के मिल जाएंगे,
फरेबी झूठ को कायम रक्खा।

© 2018 गौरव भूषण गोठी

खुदकुशी की तहक़ीक़ात

चील नहीं था वो
ऊंचाइयों से डर लगता था उसे
सिर्फ इसीलिए
कि लोग छोटे दिखने लगते थे उसे

पर वो हवाओं पे खेलता था
ज़मीन से जुड़कर
पतंग की तरह

हो सकता है वो कूदना नहीं उड़ना चाहता हो?

सुर्ख़ सलाख सा उसका ग़ुस्सा
पानी डालते ही छू

मोहब्बत की आग
जेब में लिए घूमता था
बड़ा अल्हड सा था

हो सकता है उसके गुस्से में कहीं इश्क़ छुपा हो?

दुनिया उसे लगती थी चपटी
जिसकी सोच सीमित थी अपने क्षेत्रफ़ल तक

पृथ्वी उसे लगती थी गोल
जिसकी सोच का ना ओर ना छोर
ना ज़मीन नाआसमाँ

हो सकता है वो अपनी कब्र नहीं आसमाँ ढूँढ रहा हो?

लहरों के विरूद्ध
पानी से लड़ता था वो
पानी को देता था हिदायतें
प्यास बुझाना....डुबोना नहीं

वास्तव में वो ख़ुद भी था पानी
सागर में सागर की तरह
गागर में गागर की तरह
चुल्लू में चुल्लू की तरह

हो सकता है वो दुश्मन ना हो बस अपने हिस्से की जंग लड़ रहा हो?

लाश ठंडी नहीं पड़ी है
जिस्म अब भी ताज़ा है
हो सकता है उसके ख्याल उसके दिल के किसी कोने में अब भी साँस ले रहे हो?

सुबह से
उसकी मेज़ पर
पेपर वेट में दबा एक कागज
फड़फड़ा रहा है....
उसे ध्यान से पढ़ना....
हो सकता है वो एक अधूरी कविता हो, सुसाइड नोट ना हो?

लाशों का पंचनामा हो सकता है
खयालों का नहीं।

© 2018 गौरव भूषण गोठी

ये ट्रेन

सब कुछ
चल रहा होता है पीछे

हर पल
पल भर में बह जाता है
किसी अहसास के
समंदर में

ये ट्रेन
शहर तो पहुँचा देगी
पर घर नहीं।

© 2018 गौरव भूषण गोठी

सूत्र की स्थापना

व्यवस्था का गणित
जानता है
पर
नहीं मानता मुझे प्रश्न

फिर भी
व्यवस्थाओं ने
मेरा उत्तर खोजने का
ढ़ोंग रचकर
पा लिया है
सभ्यता कहलाने का तमगा

सभ्य कहलाने के नाम पर
हर सदी में
करवाई गई
ऐतिहासिक गणित के
सूत्रों की स्थापना

कई जन्मों के बाद
मुझे ज्ञात हुआ
मेरा उत्तर
ढूंढने का उत्तरदायी
मैं ही हूँ

व्यवस्था अब भी
ऐतिहासिक
गणित के आधार पर
घोषित कर देना चाहती है
मुझे शून्य
कोई संख्या
या अनंत

पर इस बार
पूरी हिम्मत जुटाकर
मैंने स्वयं को
मान लिया है X

असीम सम्भावनाओं को
खंगालकर
अब होगी
सत्य के सूत्र की स्थापना।

© 2018 गौरव भूषण गोठी

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा में...

अधिकतर हम रहते हैं अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने व्यक्तित्व, अपने चरित्र, अपनी समझ या अपने मद में। हम रह सकते हैं अपने रंग में भी पर कलम से...